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Wednesday, January 27, 2016

अंग्रेजियत का मोह

आप  भारत में किसी  शौपिंग मॉल में चले जाएँ  आपको वहां जाकर लगेगा कि आप किसी यूरोपियन  देश में  हैं क्योंकि  सारे स्टोर्स के नाम  अंग्रेजी में मिलेंगे  जैसेकि wills , peter  england ,ven heusan ,arrow ,UCB इत्यादि   ये सभी नाम  विदेशी  हैं और कुछ नाम अगर स्वदेशी हैं तो वो भी अंग्रेजी में ही लिखे हुए मिलेंगे
क्या हमें हिंदी में लिखने में शर्म आती है. भारत में  फिल्में हिंदी  हैं पर  पोस्टर पर नाम अंग्रेजी में  लिखा जाता है।  सारे पुरस्कार  समारोह में अंग्रेजी बोली जाती है
आज की तारीख  में सिर्फ नरेंद्र मोदी और कुछ ही लोग  ही हिंदी बोलते हैं.  क्या भारत में ग़ुलामी की जड़ें इतनी मजबूत हो गयी हैं की हम अपनी राष्ट्रभाषा भूलते जा रहें हैं. हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम  के स्कूलों  में पढने में  गर्व महसूस करते हैं.  क्या आपको पता है  की विश्व के जीतें भी विकसित देश हैं जैसे  जर्मनी ,जापान ,फ्रांस ,रूस  वहां  मेडिकल  और इंजीनियरिंग  उनकी मातृभाषा  में पढाई जाती है.अगर अंग्रेजी  पढ़ने से ही विकास होता तो ये सारे देश विकसित नहीं होते।
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए विश्व के किसी देश ने भी अंग्रेजी को नहीं अपनाया । भारत को छोड़ हर मुल्क की आज अपनी भाषा है। इसी कारण विदेश दौरे पर गये भारतीय प्रतिनिधि द्वारा अपना संबोधन अंग्रेजी में देते ही यह सुनना पड़ा कि क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं ? इस अपमान के बावजूद भी हम आज तक नहीं चेत पाये। कितना अच्छा सभी भारतवासियों को लगा था जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी विश्व मंच पर अपना वकतव्य हिन्दी में दिये थे । आज जब अपने ही घर में हिन्दी अपने ही लोगों द्वारा उपेक्षित होती है, तो स्वाभिमान को कितना ठेस पहुंचता होगा, सहज अनुमान लगाया जा सकता। काश यह अनुमान उन देशवासियों को होता जो इस देश में जन्म लेकर विदेशी भाषा अंग्रेजी को अहमियत देते है।

दलित होने का फैशन

आजकल  दलित  राजनीती चरमोत्कर्ष  पर  है  यह  सिर्फ दलितों की चिंता है उनकी  आड़  में  अपनी  रोटियां  सेंकनी   है क्या सचमुच दलित होना आजकल  फैशन बन गया है  क्या  वाकई  दलित  दलित  ही रहना  चाहते हैं  या पढ़ लिख कर  दलितत्व  से मुक्त होना चाहते हैं. अगर आरक्षण से  फायदा होना  होता तो आज़ादी के बाद  सारे  दलित पढ़ लिख कर उच्च  पद  आ गए होते और अपने आप को दलितत्व के अभिशाप से मुक्त हो गए होते।
आज से १०० साल पहले बाबासाहेब आंबेडकर ने  बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका मे उच्च अध्धयन के लिये एक पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया और उच्च शिक्षा प्राप्त कर सम्मानित  जीवन  जिया और अपने आप को दलित होने के अभिसहप से मुक्त कर लिया परन्तु  आज   उन्ही  के  नाम  से लोग राजनीती कर हैं. परन्तु  उनकी तरह कोई आगे नहीं बढ़ना चाहता  दरअसल  इस देश के कुछ लोग नहीं चाहते  की  छुहाछूत  खत्म हो  दलितों  के नाम पर वोटों की राजनीती हो रही है अगर सभी पढ़ लिख कर आगे बढ़ गए तो  वोट कौन देगा  अतः  आज  आवश्कयता  है कि आरक्षण पैर पुनर्विचार  हो.